वर्ल्ड ऑफ़ साईं ग्रुप में आपका हार्दिक स्वागत है । श्री साईं जी के ब्लॉग में आने के लिए आपका कोटि कोटि धन्यवाद । श्री साईं जी की कृपा आप सब पर सदैव बनी रहे ।

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शिर्डी से सीधा प्रसारण ,... "श्री साँई बाबा संस्थान, शिर्डी " ... के सौजन्य से... सीधे प्रसारण का समय ... प्रात: काल 4:00 बजे से रात्री 11:15 बजे तक ... सीधे प्रसारण का इस ब्लॉग पर प्रसारण केवल उन्ही साँई भक्तो को ध्यान में रख कर किया जा रहा है जो किसी कारणवश बाबा जी के दर्शन नहीं कर पाते है और वह भक्त उससे अछूता भी नहीं रहना चाहते,... हम इसे अपने ब्लॉग पर किसी व्यव्सायिक मकसद से प्रदर्शित नहीं कर रहे है। ...ॐ साँई राम जी...

Monday 31 December 2012

Sunday 30 December 2012

तेरे दर पे तो मै, आया साईं


ॐ सांई राम



तेरे दर पे तो मै, आया साईं

अब मुझको तू ठुकराना

Saturday 29 December 2012

शिर्डी पुरेश्वर हे साँई बाबा महेश्वरा


ॐ सांई राम


साँई है जीवन, जीवन शिर्डी के साँई
साँई मेरा जीवन सहारा
साँई है जीवन, जीवन शिर्डी के साँई
तेरे बिना साँई सब है अन्धेरा 
पार करो मेरी जीवन नईयाँ
चरण लगा लो मुझे साँई कन्हैया

Friday 28 December 2012

निमंत्रण श्री साँई पालकी शोभा यात्रा


निमंत्रण श्री साँई पालकी शोभा यात्रा


ॐ साँई राम जी


श्री साँई बाबा जी की कृपा आप सभी पर
निरंतर बरसती रहे

श्रीमद् भगवद् गीता -- अध्याय -(2)






श्रीमद् भगवद् गीता -- अध्याय -(2) सांख्ययोग


संजय बोले (Sanjay Said):
तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम्।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः॥२- १॥
तब चिंता और विशाद में डूबे अर्जुन कोजिसकी आँखों में आँसू भर आऐ थेमधुसूदन ने यह वाक्य कहे॥

Thursday 27 December 2012

श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 42


ॐ सांई राम


आप सभी को वर्ल्ड ऑफ साईं ग्रुप की और से साईं-वार की हार्दिक शुभ कामनाएं , हम प्रत्येक साईं-वार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है , हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगा, किसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है...





श्री साई सच्चरित्र - अध्याय 42 - महासमाधि की ओर

Wednesday 26 December 2012

चले साईं के देस


ॐ सांई राम


हम मतवाले हैं
चले साईं के देस
यहाँ सभी को चैन मिलेगा
कभी न लागे ठेस ....

Tuesday 25 December 2012

Merry Christmas to all...



ॐ सांई राम
Christmas is not a time nor a season,
but a state of mind.
To cherish peace and goodwill,
to be plenteous in mercy,
is to have the real spirit of Christmas.



===ॐ साईं श्री साईं जय जय साईं ===

बाबा की कृपा आप पर सदा बरसती रहे ।



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Monday 24 December 2012

अर्ज सुनो मेरे परम कृपालु


ॐ सांई राम

अर्ज सुनो मेरे परम कृपालु

शिर्डीपुरेश्वर जय साँई देवा
अर्ज सुनो मेरे परम कृपालु

Sunday 23 December 2012

आनंद पा लिया है साईं के दर पे आके



ॐ सांई राम


तेरा हाथ जिसने पकड़ा


वो रहा न बेसहारा
दरिया मैं डूबकर भी
उसे मिल गया किनारा

Saturday 22 December 2012

अब समझे सबसे बडा साई नाम


ॐ सांई राम


अब समझे सबसे बडा साई नाम |
सबसे बडा साई नाम,
सबसे बडा साई नाम,
अब समझे सबसे बडा साई नाम !

Friday 21 December 2012

श्रीमद् भगवद् गीता -- अध्याय - 1

श्रीमद् भगवद् गीता -- अध्याय -(1) 
(अर्जुनविषादयोग)
यदा-यदा ही धर्मस्य:,ग्लानिर्भवतिभारत:।
अभ्युत्थानमअधर्मस्य,तदात्मानमसृजाम्यहम:।।


धृतराष्ट्र उवाच

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः ।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय ॥१-१॥

धृतराष्ट्र बोले- हे सञ्जय ! धर्मभूमि कुरुक्षेत्रमें एकत्रित, युद्धकी इच्छावाले मेरे और पाण्डुके पुत्रोंने क्या किया  












सञ्जय उवाच 
दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा ।
आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत् ॥१-२॥



सञ्जय बोले- उस समय राजा दुर्योधनने व्यूहरचनायुक्त पाण्डवोंकी सेनाको देखकर और द्रोणाचार्यके पास जाकर यह वचन कहा । २ 



पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम् ।
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ॥३॥

हे आचार्य ! आपके बुद्धिमान शिष्य द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न द्वारा व्यूहाकार खडी की हुई पाण्डुपुत्रोंकी उस बडी भारी सेनाको देखिये ।

अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि ।
युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः ॥१-४॥


धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान् ।
पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुंगवः ॥१-५॥


युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान् ।
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः ॥१-६॥


इस सेनामें बडे-बडे धनुषोंवाले तथा युद्धमें भीम और अर्जुनके समान शूरवीर सात्यकि और विराट तथा महारथी राजा द्रुपद, धृष्टकेतु और चेकितान तथा बलवान् काशिराज, पुरुजित्, कुंतिभोज और मनुष्योंमें श्रेष्ठ शैब्य, पराक्रमी युधामन्यु तथा बलवान् उत्तमौजा, सुभद्रापुत्र अभिमन्यु एवं द्रौपदीके पाँचों पुत्र- ये सभी महारथी है ।

अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम ।
नायका मम सैन्यस्य सञ्ज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते ॥७॥

हे ब्राह्मणश्रेष्ठ ! अपने पक्षमें भी जो प्रधान हैं, उनको आप समझ लीजिये । आपकी जानकारीके लिए मेरी सेनाके जो-जो सेनापति है, उनको बतलाता हूँ ।

भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिञ्जयः ।
अश्वत्थामा विकणॅश्च सौमदत्तिस्तथैव च ॥८॥

आप (आचार्य द्रोण) और पितामह भीष्म तथा कर्ण और संग्राम विजयी कृपाचार्य तथा अश्वत्थामा, विकर्ण और सोमदत्तका पुत्र भूरिश्रवा ।

अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः ।
नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः ॥९॥

और भी मेरे लिये जीवन त्याग देनेवाले बहुत-से शूरवीर अनेक प्रकारके शस्त्रास्त्रोंसे सुसज्जित और सभी युध्दमें चतुर हैं ।

अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम् ।
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम् ॥१०॥


भीष्मपितामह द्वारा रक्षित हमारी वह सेना अपर्याप्त है और भीम द्वारा रक्षित इन लोगोंकी यह सेना पर्याप्त है ।

अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः ।
भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि ॥११॥

इसलिये सब मोर्चों पर अपनी-अपनी जगह स्थित रहते हुए आप सभी निःसन्देह भीष्मपितामहकी ही सब ओरसे रक्षा करें ।

तस्य सञ्जनयन् हर्षं कुरुवृद्ध: पितामह: ।
सिंहनादं विनद्योच्चै: शंखं दध्मौ प्रतापवान् ॥१२॥


कौरवोंमें ज्येष्ठ, प्रतापी पितामह भीष्मने उस दुर्योधनके हृदयमें हर्ष उत्पन्न करते हुए उच्च स्वरसे सिंहकी दहाडके समान गरजकर शंख बजाया ।

तत: शंखाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखा: ।
सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत् ॥१३॥


इसके पश्चात् शड्ख और नगारे तथा ढोल, मृदंग और नरसिंघे आदि बाजे एक साथ ही बज उठे । उन सबकी वह आवाज़ बडी भयंकर हुई ।

ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ ।
माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शंङ्खौ प्रदध्मतुः ॥१४॥


इसके अनंतर सफेद घोडोंसे युक्त उत्तम रथमें बैठे हुए श्रीकृष्ण महाराज और अर्जुनने भी दिव्य शंख बजाये ।


पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जयः ।
पौण्ड्रं दध्मौ महाशङ्खं भीमकर्मा वृकोदरः ॥१५॥


श्रीकृष्ण महाराजने पाज्चजन्य नामक, अर्जुनने देवदत्त नामक और भयानक कर्मवाले भीमसेनने पौण्ड्र नामक महाशंख बजाया ।

अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः ।
नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ ॥१६॥


कुंतीपुत्र राजा युधिष्ठिरने अनंतविजय नामक और नकुल तथा सहदेवने सुघोष और मणिपुष्पक नामक शंख बजाये ।

काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः ।
धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः ॥१७॥


द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते ।
सौभद्रश्च महाबाहुः शंखान्दध्मुः प्रुथक्प्रुथक ॥१८॥


श्रेष्ठ धनुषवाले काशिराज और महारथी शिख्ण्डी एवं धृष्टद्युम्न तथा राजा विराट और अजेय सात्यकि, राजा द्रुपद एवं द्रौपदीके पाँचों पुत्र और बडी भुजावाले सुभद्रापुत्र अभिमन्यु- इन् सभीने, हे राजन् ! सब ओरसे अलग-अलग शड्ख बजाये ।

स घोषो धार्तराष्ट्रणां हृदयानि व्यदारयत् ।
नभश्च पृथिविं चैव तुमुलो व्यनुनादायन् ॥१९॥


आकाश और पृथ्वी के बीच गुँजती हुई उस प्रचंड आवाजने धार्तराष्ट्रोंके (याने कौरवोंके) हृदय भेद दिये

अथ व्यवस्थितान्दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान् कपिध्वजः ।
प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः ॥२०॥


हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते ।
अर्जुन उवाच
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत ॥२१॥


हे राजन् ! इस पश्चात् कपिध्वज अर्जुनने मोर्चा बाँधकर डटे हुए धृतराष्ट्र-सम्बन्धियोंको देखकर, उस शस्त्रप्रहारकी तैयारीके समय धनुष उठाकर ह्रषीकेश श्रीकृष्णसे यह वचन कहा – “हे अच्युत ! मेरे रथको दोनों सेनाओंके बीचमें खडा कीजिये” ।

यावदेतान्निरीक्षे‍ऽहं योद्धुकामानवस्थितान् ।
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन् रणसमुद्यमे ॥२२॥


और जब तक मैं युद्धक्षेत्रमें डटे हुए, युद्ध-अभिलाषी इन विपक्षी योद्धाओंको देख लूँ कि युद्धमें मुझे किन-किनके साथ युद्ध करना है, तबतक उसे खडा रखिये ।

योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः ।
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धेप्रियचिकीर्षवः ॥२३॥


दुर्बुद्धि दुर्योधनका युद्धमें हित चाहनेवाले जो-जो ये राजा लोग इस सेनामें आये हैं, इन युद्ध करनेवालोंको मैं देख लूँ ।

संजय उवाच
एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम् ॥२४॥

भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम् ।
उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरूनिति ॥२५॥


सञ्जय बोले- हे धृतराष्ट्र ! प्रमादविजयी अर्जुन द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर श्रीकृष्णने (उस) उत्तम रथको दोनों सेनाओंके बीचमें ला खडा किया । भीष्म, द्रोणाचार्य तथा सभी राजाओंके सामने आकर उन्होंने कहा कि “हे पार्थ ! युद्धके लिये इकट्ठे हुए इन कौरवोंको देख” ।

तत्रापश्यत्स्थितान् पार्थः पितृनथ पितामहान् ।
आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा ॥२६॥


श्वशुरान् सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि।
तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान् ॥२७॥

कृपया परयाविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत् ।
अर्जुन उवाच
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् ॥२८॥

सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति ।
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते ॥२९॥


इसके बाद पृथापुत्र अर्जुनने उन दोनों ही सेनाओंमें स्थित ताउ-चाचोंको, पौत्रोंको तथा मित्रोंको, ससुरोंको और सुह्रदोंको भी देखा । उन उपस्थित सभी संबंधीयोंको देखकर वे कुंतीपुत्र अर्जुन अत्यंत करुणासे युक्त होकर शोक करते हुए यह वचन बोले, “हे कृष्ण ! युद्धक्षेत्रमें डटे हुए युद्धके अभिलाषी उस स्वजनसमुदायको देखकर मेरे अड्ग शिथिल हो रहे हैं और मुख सुखा जा रहा है, तथा मेरे शरीरमें कम्प एवं रोमांच हो रहा है ।

गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते ।
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः ॥३०॥


हाथसे गाण्डीव धनुष गिर रहा है और त्वचा भी बहुत जल रही है तथा मेरा मन भ्रमित-सा हो रहा है; मैं स्वयंको संभालनेमें भी असमर्थ हो रहा हूँ ।
 

निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ।

न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ॥३१॥


हे केशव ! मैं लक्षणोंको भी अशुभ देख रहा हूँ तथा युद्धमें स्वजनसमुदायको मारकर कल्याण भी नहीं देखता ।
 

न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च ।

किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा ॥३२॥


हे कृष्ण ! मैं न तो विजय चाहता हूँ और न राज्य या सुखोंकी कामना रखता हूँ । हे गोविन्द ! हमें एसे राज्यसे क्या प्रयोजन है अथवा ऐसे भोगोंसे और जीवनसे भी क्या लाभ है ?


येषामर्थे काङ्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च ।

त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ॥३३॥

जिनके लिए राज्य, भोग और सुखादिकी कामना होती, वे सब तो धन और जीवनकी आशा छोडकर यहाँ युद्धमें खडे हैं ।

आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः ।

मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा ॥३४॥


गुरुजन, ताउ-चाचे, पुत्रादि और दादे, मामे, ससुर, पौत्र, साले तथा और भी सम्बन्धी लोग हैं ।

एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन।
अपि त्रैलोक्यराजस्य हेतोः किं नु महीकृते॥३५॥

हे मधुसूदन ! मुझे मारनेपर भी अथवा तीनों लोकोंके राज्यके लिये भी मैं इन्हें मारना नहीं चाहता; फिर पृथ्वीके राज्यके लिये तो प्रश्न ही कहाँ है ?

निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन ।
पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनः ॥३६॥


हे जनार्दन ! धृतराष्ट्रके पुत्रोंको मारकर हमें क्या प्रसन्नता होगी ? इन आततायियोंको मारकर तो हमें पाप ही लगेगा ।

तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान्।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव ॥३७॥


इस लिए हे माधव ! अपने ही बान्धव धृतराष्ट्रके पुत्रोंको मारनेके लिये हम योग्य नहीं हैं; क्योंकि अपने ही स्वजनोंको मारकर हम कैसे सुखी होंगे ?

यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभो पहतचेतसः ।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् ॥३८॥

कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम् ।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ॥३९॥


यद्यपि लोभसे भ्रष्टचित्त हुए ये लोग कुलके नाशसे उत्पन्न होनेवाले दोषोंको और मित्रोंसे विरोध करनेमें पाप नहीं देख पाते, फिर भी हे जनार्दन ! कुलनाशसे उत्पन्न दोषोंको जाननेवाले हमलोगोंने, इस पापसे हटनेके लिये क्यों नहीं सोचना चाहिये ?

कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः।
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्न्मधर्मोऽभिभवत्युत॥४०॥


कुलके नाशसे सनातन कुल-धर्म नष्ट हो जाते हैं, धर्मके नाश हो जाने पर सम्पूर्ण कुलमें बहुत पाप भी फैल जाता है ।

अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुश्यन्ति कुलस्त्रियः ।
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसङ्करः ॥४१॥


हे कृष्ण ! पापके अधिकतम होनेसे कुलकी स्त्रियाँ दूषित हो जाती हैं और हे वार्ष्णेय ! स्त्रियोंके दूषित हो जानेपर वर्णसड्कर प्रजा उत्पन्न होती है ।

सङ्करो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च ।
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिन्डोदकक्रियाः ॥४२॥


वर्णसड्कर प्रजा कुलघातियोंको और कुलको नरकमें ही ले जाती है । पिण्ड-जलादि क्रिया लुप्त होनेसे (अर्थात् श्राद्ध और तर्पणसे वञ्चित) इनके पितरलोग भी अधोगतिको प्राप्त होते हैं ।



दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसङ्करकारकैः ।

उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः ॥४३॥


इन वर्णसड्करकारक दोषोंसे कुलघातियोंके सनातन कुल-धर्म और जाति-धर्म नष्ट हो जाते हैं ।

उत्सन्न्कुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन ।
नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम ॥४४॥


हे जनार्दन ! जिनका कुल-धर्म नष्ट हो गया है, ऐसे मनुष्योंका अनिश्चित कालतक नरकमें वास होता है, ऐसा हम सुनते आये हैं ।

अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम् ।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजन्मुद्यताः ॥४५॥


अरे ! यह व्यथापूर्ण है कि हम बुद्धिमान होकर भी महान पाप करने तैयार हो गये हैं, जो राज्य और सुखके लोभसे स्वजनोंको मारनेके लिये उद्यत हो गये हैं ।
 

यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः।

धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत् ॥४६॥


यदि मुझ शस्त्ररहित एवं सामना न करनेवालेको, धुतराष्ट्रके सशस्त्र पुत्र रणमें मार डाले तो वह मरना भी मेरे लिये अधिक कल्याणकारक होगा ।

सञ्जय उवाच
एवमुक्तवार्जुनः सङ्ख्ये रथोपस्थ उपाविशत् ।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः ॥४७॥


सञ्जय बोले- रणभूमिमें शोकसे उद्विग्न मनवाले अर्जुन इस प्रकार कहकर, बाणसहित धनुष्यको त्यागकर रथके पिछले भाग में बैठ गये ।



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प्रथम अध्याय सम्पूर्ण
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एक 18 साल का लड़का ट्रेन में खिड़की के पास वाली सीट पर बैठा था. अचानक वो ख़ुशी में जोर से चिल्लाया "पिताजी, वो देखो, पेड़ पीछे जा रहा हैं". उसके पिता ने स्नेह से उसके सर पर हाँथ फिराया. वो लड़का फिर चिल्लाया "पिताजी वो देखो, आसमान में बादल भी ट्रेन के साथ साथ चल रहे हैं". पिता की आँखों से आंसू निकल गए. पास बैठा आदमी ये सब देख रहा था. उसने कहा इतना बड़ा होने के बाद भी आपका लड़का बच्चो जैसी हरकते कर रहा हैं. आप इसको किसी अच्छे डॉक्टर से क्यों नहीं दिखाते?? पिता ने कहा की वो लोग डॉक्टर के पास से ही आ रहे हैं. मेरा बेटा जनम से अँधा था, आज ही उसको नयी आँखे मिली हैं. #नेत्रदान करे. किसी की जिंदगी में रौशनी भरे.