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Saturday 30 November 2013

चालीसा श्री साईं बाबा जी

ॐ साँई राम जी


चालीसा श्री साईं बाबा जी

|| चौपाई ||

पहले साई के चरणों में, अपना शीश नमाऊं मैं।
कैसे शिरडी साई आए, सारा हाल सुनाऊं मैं॥

कौन है माता, पिता कौन है, ये न किसी ने भी जाना।
कहां जन्म साई ने धारा, प्रश्न पहेली रहा बना॥

कोई कहे अयोध्या के, ये रामचंद्र भगवान हैं।
कोई कहता साई बाबा, पवन पुत्र हनुमान हैं॥

कोई कहता मंगल मूर्ति, श्री गजानंद हैं साई।
कोई कहता गोकुल मोहन, देवकी नन्दन हैं साई॥

शंकर समझे भक्त कई तो, बाबा को भजते रहते।
कोई कह अवतार दत्त का, पूजा साई की करते॥

कुछ भी मानो उनको तुम, पर साई हैं सच्चे भगवान।
ब़ड़े दयालु दीनबं़धु, कितनों को दिया जीवन दान॥

कई वर्ष पहले की घटना, तुम्हें सुनाऊंगा मैं बात।
किसी भाग्यशाली की, शिरडी में आई थी बारात॥

आया साथ उसी के था, बालक एक बहुत सुन्दर।
आया, आकर वहीं बस गया, पावन शिरडी किया नगर॥

कई दिनों तक भटकता, भिक्षा माँग उसने दर-दर।
और दिखाई ऐसी लीला, जग में जो हो गई अमर॥

जैसे-जैसे अमर उमर ब़ढ़ी, ब़ढ़ती ही वैसे गई शान।
घर-घर होने लगा नगर में, साई बाबा का गुणगान॥

दिग् दिगंत में लगा गूंजने, फिर तो साई जी का नाम।
दीन-दुखी की रक्षा करना, यही रहा बाबा का काम॥

बाबा के चरणों में जाकर, जो कहता मैं हूं नि़धoन।
दया उसी पर होती उनकी, खुल जाते दुःख के बंधन॥

कभी किसी ने मांगी भिक्षा, दो बाबा मुझको संतान।
एवं अस्तु तब कहकर साई, देते थे उसको वरदान॥

स्वयं दुःखी बाबा हो जाते, दीन-दुःखी जन का लख हाल।
अन्तःकरण श्री साई का, सागर जैसा रहा विशाल॥

भक्त एक मद्रासी आया, घर का बहुत ब़ड़ा ़धनवान।
माल खजाना बेहद उसका, केवल नहीं रही संतान॥

लगा मनाने साईनाथ को, बाबा मुझ पर दया करो।
झंझा से झंकृत नैया को, तुम्हीं मेरी पार करो॥

कुलदीपक के बिना अं़धेरा, छाया हुआ घर में मेरे।
इसलिए आया हँू बाबा, होकर शरणागत तेरे॥

कुलदीपक के अभाव में, व्यर्थ है दौलत की माया।
आज भिखारी बनकर बाबा, शरण तुम्हारी मैं आया॥

दे-दो मुझको पुत्र-दान, मैं ऋणी रहूंगा जीवन भर।
और किसी की आशा न मुझको, सिर्फ भरोसा है तुम पर॥

अनुनय-विनय बहुत की उसने, चरणों में ़धर के शीश।
तब प्रसन्न होकर बाबा ने , दिया भक्त को यह आशीश॥

`अल्ला भला करेगा तेरा´ पुत्र जन्म हो तेरे घर।
कृपा रहेगी तुझ पर उसकी, और तेरे उस बालक पर॥

अब तक नहीं किसी ने पाया, साई की कृपा का पार।
पुत्र रत्न दे मद्रासी को, धन्य किया उसका संसार॥

तन-मन से जो भजे उसी का, जग में होता है उद्धार।
सांच को आंच नहीं हैं कोई, सदा झूठ की होती हार॥

मैं हूं सदा सहारे उसके, सदा रहूँगा उसका दास।
साई जैसा प्रभु मिला है, इतनी ही कम है क्या आस॥

मेरा भी दिन था एक ऐसा, मिलती नहीं मुझे रोटी।
तन पर कप़ड़ा दूर रहा था, शेष रही नन्हीं सी लंगोटी॥

सरिता सन्मुख होने पर भी, मैं प्यासा का प्यासा था।
दुिर्दन मेरा मेरे ऊपर, दावाग्नी बरसाता था॥

धरती के अतिरिक्त जगत में, मेरा कुछ अवलम्ब न था।
बना भिखारी मैं दुनिया में, दर-दर ठोकर खाता था॥

ऐसे में एक मित्र मिला जो, परम भक्त साई का था।
जंजालों से मुक्त मगर, जगती में वह भी मुझसा था॥

बाबा के दर्शन की खातिर, मिल दोनों ने किया विचार।
साई जैसे दया मूर्ति के, दर्शन को हो गए तैयार॥

पावन शिरडी नगर में जाकर, देख मतवाली मूरति।
धन्य जन्म हो गया कि हमने, जब देखी साई की सूरति॥

जब से किए हैं दर्शन हमने, दुःख सारा काफूर हो गया।
संकट सारे मिटै और, विपदाओं का अन्त हो गया॥

मान और सम्मान मिला, भिक्षा में हमको बाबा से।
प्रतिबिम्‍िबत हो उठे जगत में, हम साई की आभा से॥

बाबा ने सन्मान दिया है, मान दिया इस जीवन में।
इसका ही संबल ले मैं, हंसता जाऊंगा जीवन में॥

साई की लीला का मेरे, मन पर ऐसा असर हुआ।
लगता जगती के कण-कण में, जैसे हो वह भरा हुआ॥

`काशीराम´ बाबा का भक्त, शिरडी में रहता था।
मैं साई का साई मेरा, वह दुनिया से कहता था॥

सीकर स्वयंं वस्त्र बेचता, ग्राम-नगर बाजारों में।
झंकृत उसकी हृदय तंत्री थी, साई की झंकारों में॥

स्तब़्ध निशा थी, थे सोय,े रजनी आंचल में चाँद सितारे।
नहीं सूझता रहा हाथ को हाथ तिमिर के मारे॥

वस्त्र बेचकर लौट रहा था, हाय ! हाट से काशी।
विचित्र ब़ड़ा संयोग कि उस दिन, आता था एकाकी॥

घेर राह में ख़ड़े हो गए, उसे कुटिल अन्यायी।
मारो काटो लूटो इसकी ही, ध्वनि प़ड़ी सुनाई॥

लूट पीटकर उसे वहाँ से कुटिल गए चम्पत हो।
आघातों में मर्माहत हो, उसने दी संज्ञा खो॥

बहुत देर तक प़ड़ा रह वह, वहीं उसी हालत में।
जाने कब कुछ होश हो उठा, वहीं उसकी पलक में॥

अनजाने ही उसके मुंह से, निकल प़ड़ा था साई।
जिसकी प्रतिध्वनि शिरडी में, बाबा को प़ड़ी सुनाई॥

क्षुब़्ध हो उठा मानस उनका, बाबा गए विकल हो।
लगता जैसे घटना सारी, घटी उन्हीं के सन्मुख हो॥

उन्मादी से इ़धर-उ़धर तब, बाबा लेगे भटकने।
सन्मुख चीजें जो भी आई, उनको लगने पटकने॥

और ध़धकते अंगारों में, बाबा ने अपना कर डाला।
हुए सशंकित सभी वहाँ, लख ताण्डवनृत्य निराला॥

समझ गए सब लोग, कि कोई भक्त प़ड़ा संकट में।
क्षुभित ख़ड़े थे सभी वहाँ, पर प़ड़े हुए विस्मय में॥

उसे बचाने की ही खातिर, बाबा आज विकल है।
उसकी ही पी़ड़ा से पीडित, उनकी अन्तःस्थल है॥

इतने में ही विविध ने अपनी, विचित्रता दिखलाई।
लख कर जिसको जनता की, श्रद्धा सरिता लहराई॥

लेकर संज्ञाहीन भक्त को, गा़ड़ी एक वहाँ आई।
सन्मुख अपने देख भक्त को, साई की आंखें भर आई॥

शांत, धीर, गंभीर, सिन्धु सा, बाबा का अन्तःस्थल।
आज न जाने क्यों रह-रहकर, हो जाता था चंचल॥

आज दया की मू स्वयं था, बना हुआ उपचारी।
और भक्त के लिए आज था, देव बना प्रतिहारी॥

आज भिक्त की विषम परीक्षा में, सफल हुआ था काशी।
उसके ही दर्शन की खातिर थे, उम़ड़े नगर-निवासी।

जब भी और जहां भी कोई, भक्त प़ड़े संकट में।
उसकी रक्षा करने बाबा, आते हैं पलभर में॥

युग-युग का है सत्य यह, नहीं कोई नई कहानी।
आपतग्रस्त भक्त जब होता, जाते खुद अन्र्तयामी॥

भेदभाव से परे पुजारी, मानवता के थे साई।
जितने प्यारे हिन्दू-मुस्लिम, उतने ही थे सिक्ख ईसाई॥

भेद-भाव मंदिर-मिस्जद का, तोड़-फोड़ बाबा ने डाला।
राह रहीम सभी उनके थे, कृष्ण करीम अल्लाताला॥

घण्टे की प्रतिध्वनि से गूंजा, मिस्जद का कोना-कोना।
मिले परस्पर हिन्दू-मुस्लिम, प्यार बढ़ा दिन-दिन दूना॥

चमत्कार था कितना सुन्दर, परिचय इस काया ने दी।
और नीम कडुवाहट में भी, मिठास बाबा ने भर दी॥

सब को स्नेह दिया साई ने, सबको संतुल प्यार किया।
जो कुछ जिसने भी चाहा, बाबा ने उसको वही दिया॥

ऐसे स्नेहशील भाजन का, नाम सदा जो जपा करे।
पर्वत जैसा दुःख न क्यों हो, पलभर में वह दूर टरे॥

साई जैसा दाता हमने, अरे नहीं देखा कोई।
जिसके केवल दर्शन से ही, सारी विपदा दूर गई॥

तन में साई, मन में साई, साई-साई भजा करो।
अपने तन की सुधि-बुधि खोकर, सुधि उसकी तुम किया करो॥

जब तू अपनी सुधि तज, बाबा की सुधि किया करेगा।
और रात-दिन बाबा-बाबा, ही तू रटा करेगा॥

तो बाबा को अरे ! विवश हो, सुधि तेरी लेनी ही होगी।
तेरी हर इच्छा बाबा को पूरी ही करनी होगी॥

जंगल, जगंल भटक न पागल, और ढूंढ़ने बाबा को।
एक जगह केवल शिरडी में, तू पाएगा बाबा को॥

धन्य जगत में प्राणी है वह, जिसने बाबा को पाया।
दुःख में, सुख में प्रहर आठ हो, साई का ही गुण गाया॥

गिरे संकटों के पर्वत, चाहे बिजली ही टूट पड़े।
साई का ले नाम सदा तुम, सन्मुख सब के रहो अड़े॥

इस बूढ़े की सुन करामत, तुम हो जाओगे हैरान।
दंग रह गए सुनकर जिसको, जाने कितने चतुर सुजान॥

एक बार शिरडी में साधु, ढ़ोंगी था कोई आया।
भोली-भाली नगर-निवासी, जनता को था भरमाया॥

जड़ी-बूटियां उन्हें दिखाकर, करने लगा वह भाषण।
कहने लगा सुनो श्रोतागण, घर मेरा है वृन्दावन॥

औषधि मेरे पास एक है, और अजब इसमें शिक्त।
इसके सेवन करने से ही, हो जाती दुःख से मुिक्त॥

अगर मुक्त होना चाहो, तुम संकट से बीमारी से।
तो है मेरा नम्र निवेदन, हर नर से, हर नारी से॥

लो खरीद तुम इसको, इसकी सेवन विधियां हैं न्यारी।
यद्यपि तुच्छ वस्तु है यह, गुण उसके हैं अति भारी॥

जो है संतति हीन यहां यदि, मेरी औषधि को खाए।
पुत्र-रत्न हो प्राप्त, अरे वह मुंह मांगा फल पाए॥

औषधि मेरी जो न खरीदे, जीवन भर पछताएगा।
मुझ जैसा प्राणी शायद ही, अरे यहां आ पाएगा॥

दुनिया दो दिनों का मेला है, मौज शौक तुम भी कर लो।
अगर इससे मिलता है, सब कुछ, तुम भी इसको ले लो॥

हैरानी बढ़ती जनता की, लख इसकी कारस्तानी।
प्रमुदित वह भी मन- ही-मन था, लख लोगों की नादानी॥

खबर सुनाने बाबा को यह, गया दौड़कर सेवक एक।
सुनकर भृकुटी तनी और, विस्मरण हो गया सभी विवेक॥

हुक्म दिया सेवक को, सत्वर पकड़ दुष्ट को लाओ।
या शिरडी की सीमा से, कपटी को दूर भगाओ॥

मेरे रहते भोली-भाली, शिरडी की जनता को।
कौन नीच ऐसा जो, साहस करता है छलने को॥

पलभर में ऐसे ढोंगी, कपटी नीच लुटेरे को।
महानाश के महागर्त में पहुँचा, दूँ जीवन भर को॥

तनिक मिला आभास मदारी, क्रूर, कुटिल अन्यायी को।
काल नाचता है अब सिर पर, गुस्सा आया साई को॥

पलभर में सब खेल बंद कर, भागा सिर पर रखकर पैर।
सोच रहा था मन ही मन, भगवान नहीं है अब खैर॥

सच है साई जैसा दानी, मिल न सकेगा जग में।
अंश ईश का साई बाबा, उन्हें न कुछ भी मुश्किल जग में॥

स्नेह, शील, सौजन्य आदि का, आभूषण धारण कर।
बढ़ता इस दुनिया में जो भी, मानव सेवा के पथ पर॥

वही जीत लेता है जगती के, जन जन का अन्तःस्थल।
उसकी एक उदासी ही, जग को कर देती है वि£ल॥

जब-जब जग में भार पाप का, बढ़-बढ़ ही जाता है।
उसे मिटाने की ही खातिर, अवतारी ही आता है॥

पाप और अन्याय सभी कुछ, इस जगती का हर के।
दूर भगा देता दुनिया के, दानव को क्षण भर के॥

ऐसे ही अवतारी साई, मृत्युलोक में आकर।
समता का यह पाठ पढ़ाया, सबको अपना आप मिटाकर ॥

नाम द्वारका मिस्जद का, रखा शिरडी में साई ने।
दाप, ताप, संताप मिटाया, जो कुछ आया साई ने॥

सदा याद में मस्त राम की, बैठे रहते थे साई।
पहर आठ ही राम नाम को, भजते रहते थे साई॥

सूखी-रूखी ताजी बासी, चाहे या होवे पकवान।
सौदा प्यार के भूखे साई की, खातिर थे सभी समान॥

स्नेह और श्रद्धा से अपनी, जन जो कुछ दे जाते थे।
बड़े चाव से उस भोजन को, बाबा पावन करते थे॥

कभी-कभी मन बहलाने को, बाबा बाग में जाते थे।
प्रमुदित मन में निरख प्रकृति, छटा को वे होते थे॥

रंग-बिरंगे पुष्प बाग के, मंद-मंद हिल-डुल करके।
बीहड़ वीराने मन में भी स्नेह सलिल भर जाते थे॥

ऐसी समुधुर बेला में भी, दुख आपात, विपदा के मारे।
अपने मन की व्यथा सुनाने, जन रहते बाबा को घेरे॥

सुनकर जिनकी करूणकथा को, नयन कमल भर आते थे।
दे विभूति हर व्यथा, शांति, उनके उर में भर देते थे॥

जाने क्या अद्भुत शिक्त, उस विभूति में होती थी।
जो धारण करते मस्तक पर, दुःख सारा हर लेती थी॥

धन्य मनुज वे साक्षात् दर्शन, जो बाबा साई के पाए।
धन्य कमल कर उनके जिनसे, चरण-कमल वे परसाए॥

काश निर्भय तुमको भी, साक्षात् साई मिल जाता।
वर्षों से उजड़ा चमन अपना, फिर से आज खिल जाता॥

गर पकड़ता मैं चरण श्री के, नहीं छोड़ता उम्रभर॥

मना लेता मैं जरूर उनको, गर रूठते साई मुझ पर॥

Friday 29 November 2013

भक्त पीपा जी

ॐ साँई राम जी


भक्त पीपा जी 

सतिगुरु नानक देव जी महाराज के अवतार धारण से कोई ४३ वर्ष पहले गगनौर (राजस्थान) में एक राजा हुआ, जिसका नाम पीपा था| अपने पिता की मृत्यु के बाद वह राज तख्त पर विराजमान हुआ| वह युवा तथा सुन्दर राजकुमार था| वजीरों की दयालुता के कारण वह कुछ वासनावादी हो गया तथा उसने अच्छी से अच्छी रानी के साथ विवाह कराया| इस तरह उसकी दिलचस्पी बढ़ती गई तथा कोई बारह राजकुमारियों के साथ विवाह कर लिया| उनमें से एक रानी जिसका नाम सीता था, अत्यंत सुन्दर थी, उसकी सुन्दरता तथा उसके हाव-भाव पर राजा इतना मोहित हुआ कि दीन-दुनिया को ही भूल गया| वह उसके साथ ही प्यार करता रहता, जिधर जाता उसी को देखता रहता| वह भी राजा से अटूट प्यार करती| जहां पीपा राजा था और राजकाज के अतिरिक्त स्त्री रूप का चाहवान था, वहीं देवी दुर्गा का भी उपासक था, उसकी पूजा करता रहता| दुर्गा की पूजा के कारण अपने राजभवन में कोई साधुओं तथा भक्तों को बुला कर भजन सुनता और भोजन कराया करता था| राजभवन में ज्ञान चर्चा होती रहती| उस समय रानियां भी सुनती तथा साधू और ब्राह्मणों का बड़ा आदर करतीं, उनका सिलसिला इसी तरह चलता गया| यह सिलसिला इसीलिए था कि उसके पूर्वज ऐसा करते आ रहे थे तथा कभी भी पूजा के बिना नहीं रहते थे| उन्होंने राजभवन में मंदिर बनवा रखा था|


उस समय भारत में वैष्णवों का बहुत बोलबाला था| वह मूर्ति पूजा के साथ-साथ भक्ति भाव का उपदेश करते थे| शहर में वैष्णवों की एक मण्डली आई| राजा के सेवकों ने उनका भजन सुना तथा राजा के पास आकर प्रार्थना की-महाराज! शहर में वैष्णव भक्त आए हैं, हरि भक्ति के गीत बड़े प्रेम तथा रसीली सुर में गाते हैं|

यह सुन कर राजा ने उनके दर्शन के लिए इच्छा व्यक्त की| उसने अपनी रानियों से कहा| रानी सीता बोली, 'महाराज! इससे अच्छा और क्या हो सकता है? अवश्य चलो|'

राजा पीपा पूरी सलाह तथा तैयारी करके संत मण्डली के पास गया| उसने हाथ जोड़ कर प्रार्थना की कि 'हे भक्त जनो! आप मेरे राजमहलों में चरण डाल कर पवित्र करें| तीव्र इच्छा है कि भगवान महिमा श्रवण करें तथा भोजन भंडारा करके आपकी सेवा का लाभ प्राप्त हो| कृपा करें प्रार्थना स्वीकार करो|'

संत मण्डली के मुखी ने आगे से उत्तर दिया-'हे राजन! यदि आपकी यही इच्छा है तो ऐसा ही होगा| सारी मण्डली राज भवन में जाने को तैयार है| भंडारे तथा साधुओं के लिए आसन का प्रबन्ध करो|'

पीपा एक राजा था| उसने तो आदेश ही देना था| सेवकों को आदेश दिया| सारे प्रबन्ध हो गए| एक बहुत खुली जगह में फर्श बिछ गए तथा संत मण्डली के बैठने का योग्य प्रबन्ध किया| भोजन की तैयार भी हो गई|

संत मण्डली ने ईश्वर उपमा का यश किया| भजन गाए तो सुन कर पीपा जी बहुत प्रसन्न हुए| संत भी आनंद मंगलाचार करने लगे, पर जब संतों को पता लगा कि राजा सिर्फ मूर्ति पूजक तथा वासनावादी है तो उनको कुछ दुःख हुआ| उन्होंने राजा को हरि भक्ति की तरफ लगाना चाहा| उन्होंने परमात्मा के आगे शुद्ध हृदय से आराधना की कि राजा दुर्गा की मूर्ति की जगह उसकी महान शक्ति की पुजारी बन जाए|

जैसे सतिगुरु जी का हुक्म है -

हम ढाढी हरि प्रभ खसम के नित गावह हरि गुन छंता||
हरि कीरतनु करह हरि जसु सुणह तिसु कवला कंता||
हरि दाता सभु जगतु भिखारीआ मंगत जन जंता||
हरि देवहु दानु दइआल होइ विचि पाथर क्रिम जंता||
जन नानक नामु धिआईआ गुरमुखी धनवंता||२०||



उन हरि भक्तों की प्रार्थना प्रभु परमात्मा ने सुनी| 

राजा पीपा को अपना भक्त बनाने के लिए नींद में एक स्वप्न द्वारा प्रेरित किया|

उस सपने की प्रेरणा से राजा पर विशेष प्रभाव पड़ा|


राजा को स्वप्न आना 

भक्त मण्डली में से उठ कर राजा पीपा अपने आराम करने वाले शीश महल में आ गया| वह अपनी रानी सीता के पास सो गया, जैसे पहले वह सोया करता था| उसकी शैय्या मखमली थी तथा उस पर विभिन्न प्रकार के फूल और खुशबू फैंकी हुई थी| उसको दीन दुनिया का ज्ञान नहीं था| उस रात राजा को एक स्वप्न आया| वह स्वप्न इस तरह था -

स्वप्न में जैसे राजा अपनी रानी सीता के साथ प्रेम-क्रीड़ा कर रहा था| वह बड़ी मस्ती के साथ बैठे थे कि शीश महल के दरवाज़े अपने आप खुल गए, उनके खुलने से एक डरावनी सूरत आगे बढ़ी, जैसे कि राजा ने सुना था कि दैत्य होते हैं तथा दैत्यों की सूरत के बारे में भी सुना था, वैसी ही सूरत उस दैत्य की थी| राजा डर गया तथा उसके मुंह से निकला, 'दैत्य आया! वह तो नरसिंघ के जैसा था| राजा के पास आकर उस भयानक शक्ति ने कहा - 'हे राजा! सुन लो! दुर्गा की पूजा न करना, नहीं तो तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी|' ऐसा संदेश दे कर वह शक्ति पीछे मुड़ गई तथा दरवाज़े के पास जाकर अदृश्य हो गई| उसके जाने के पश्चात राजा इतना भयभीत हुआ कि उसकी नींद खुल गई| शरीर पसीने से लथपथ था तथा उसने अपनी पत्नी सीता को जगाया, जो कि आराम से सुख की नींद सोई थी|

'हे रानी! उठो, शीघ्र उठो|'

रानी उठी तथा उसने हाथ जोड़ कर प्रार्थना की, हे नाथ! क्या आज्ञा है?

पीपा-'आओ! दुर्गा के मंदिर चलें|'

सीता-'इस समय नाथ! अभी तो आधी रात है| दूसरा स्नान?'

पीपा-'कुछ भी हो! अभी जाना है, चलो! मेरा हृदय धड़क रहा है| बहुत भयानक स्वप्न आया है|'

पतिव्रता नारी सीता उठी| राजा के साथ चली तथा दोनों मंदिर पहुंचे| राजा पीपा ने जाते ही दुर्गा देवी की मूर्ति के आगे स्वयं को समर्पित किया तथा आगे से आवाज़ आई| 'मैं पत्थर हूं-हरि भक्ति के लिए संतों के साथ लगन लगाओ| ...भाग जाओ|' ऐसा कथन सुन कर राजा उठ बैठा| वह एक तरह से डर गया था| वह सीता को साथ लेकर वापिस आने महल आ गया| संतों से बात करते दिन निकल गया तथा सुबह हुई तो स्नान करके पूजा की समाग्री लेकर संतों को मिलने जाने के लिए तैयार हो गए|


संतों से मिलन 

संत उधरन दइआलं आसरं गोपाल कीरतनह||
निरमलं संत संगेन ओट नानक परमेसुरह||२||



स्वप्न में हुए कथन से राजा के जीवन में एक बहुत बड़ा परिवर्तन आया| वह तो आहें भरने लगा| दुगा के मंदिर का पुजारी आया| उसने प्रार्थना की| राजा ने दुर्गा के मंदिर में जाने सेइन्कार कर दिया तथा संतों की तरफ चल पड़ा| जितनी जल्दी हो सका, वह उतनी जल्दी पहुंच गया तथा संतों के मुखिया के पास जा कर विनती की कि 'महाराज! मुझे हरि नाम सिमरन का मार्ग बताएं| आपके दर्शन करने से मेरे मन में वैराग उत्पन्न हो गया है| रात को नींद नहीं आती, न दिन में चैन है| कृपा करो| हे दाता! मैं तो एक भिखारी हूं|'

राजा की ऐसी व्याकुलता देख कर संतों के मन में दया आई, वह कहने लगा-'हे राजन! यह तो परमात्मा की अपार कृपा है जो आपको ऐसा वैराग उत्पन्न हुआ| पर जिसने बख्शिश करनी है, वह यहां नहीं है, वह तो काशी में है, उनका नाम है गुरु रामानंद गुसाईं| उनके पास चले जाओ|'

यह सुन कर राजा ने अपनी रानी सीता सहित काशी जाने की तैयार कर ली| वह काशी की तरफ चल पड़ा था| उसका मन बेचैनी से इस तरह पुकार रहा था -

मेलि लैहु दइआल ढहि पए दुआरिआ||रखि लेवहु दीन दइआल भ्रमत बहु हारिआ||भगति वछलु तेरा बिरदु हरि पतित उधारिआ||तुझ बिनु नाही कोई बिनउ मोहि सारिआ||करु गहि लेहु दइआल सागर संसारिआ||

राजा पीपा की ऐसी अवस्था हो गई, वह अधीनता से ऐसे निवेदन करने जाने लगा-हे दाता! कृपा करके दर्शन दीजिए मैं कंगाल आपके द्वार पर आकर नतमस्तक पड़ा हूं, अब और तो कोई आसरा नहीं| कृपा करो, प्रभु! हे दातार! आप भक्तों के रक्षक मालिक हो, आपका विरद पतितों का उद्धार करना है| आपके बिना कोई नहीं, आप दातार हो, अपना हाथ देकर मेरी लाज रखो तथा भव-सागर से पार करो! दया करो दाता, आपके बिना कोई भव-सागर से पार नहीं कर सकता| ...ऐसी व्याकुल आत्माओं के लिए सतिगुरु महाराज की बाणी है 

इस तरह बेचैनी से प्रभु की तरफ ध्यान करता हुआ पीपा चल पड़ा| उसको ऐसी लगन लगी कि उसको सीता के तन का प्यार भी कम होता नज़र आने लगा| वह ध्यान में मग्न काशी पहुंच गया|

त्रिकालदर्शी स्वामी रामानंद भी प्रात:काल गंगा स्नान करने जाते थे| जब गंगा स्नान करके आ रहे थे तो उन्होंने सुना कि गगनौर का राजा पीपा भक्त काशी में आया है तथा उनको ही ढूंढ रहा है| उन्होंने यह भी देखा कि उनके आश्रम के पास शाही ठाठ थी| हाथी, घोड़े, छकड़े तथा तम्बू लगे थे| सेवक से पूछा तो उसने भी कहा - 'महाराज! गगनौर का राजा आया है|'

स्वामी जी ने आश्रम के बाहरले फाटक को बंद करवा दिया तथा आज्ञा की कि 'दर्शन के लिए आज्ञा लिए बिना कोई न आए| इस तरह ताकीद की, उस पर अमल हो गया| राजा पीपा जब दर्शनों के लिए चला तो फाटक बंद मिला और आगे से जवाब मिला, 'गुरु की आज्ञा लेना आवश्यक है, ऐसा करना होगा |'

आज्ञा प्राप्त करने के लिए सेवक गया| वह वापिस आया तो उसने संदेश दिया - 'हे राजन! स्वामी जी आज्ञा करते हैं, हम गरीब हैं, राजाओं से हमारा क्या मेल, अच्छा है वह किसी मंदिर में जाकर लीला करें, राजाओं से हमारा मेल नहीं हो सकता|'

राजा पीपा की उत्सुकता काफी बढ़ चुकी थी| उसने उसी समय हुक्म दिया, 'जो कुछ पास है, सब बांट दिया जाए| हाथी, घोड़े, सामान मंत्री वापिस ले जाएं तथा तीन कपड़ों में सीता तथा हम रहेंगे|'

पीपा के कर्मचारियों ने ऐसा ही किया| सीता तथा राजा के सिर्फ तन के वस्त्र रह गए| हाथी, घोड़े, तम्बू सब वापिस भेज दिए| धन पदार्थ गरीबों को बांट दिया| प्यार रखा प्रभु से| उत्सुकता कायम रखी हृदय में| फाटक के आगे जा खड़ा हुआ| फिर प्रार्थना करके भेजी, 'महाराज आपके दर्शन की अभिलाषा, आत्मा बहुत व्याकुल है|'

स्वामी जी ने अभी और परीक्षा लेनी थी कि कहीं यूं ही तो नहीं करता| उन्होंने कह कर भेजा, 'बहुत जल्दी में है तो कुएं में छलांग जा मारे|' वहां से जल्दी ही परमात्मा के दर्शन हो जाएंगे| सेवक ने ऐसा ही कहा, पीपा जी ने सुना|

पीपा भक्त तो उस समय गुरु-दर्शन के लिए इतना उत्सुक था कि वह अपने तन को चिरवा सकता था| सुनते ही वह कोई कुंआ ढूंढने के लिए भाग उठा| उसके पीछे उसकी सत्यवती नारी सीता भी दौड़ पड़ी| वह कुएं में गिरेगा| कुएं में गिरने से शीघ्र दर्शन हो सकते हैं| ऐसा बोलता हुआ वह दौड़ता गया, शोर मच गया|

उधर स्वामी रामानंद जी ने अपनी आत्मिक शक्ति से देखा कि पीपा जी को सत्यता ही 'हरि' से प्यार हो गया है, भक्त बनेगा, इसलिए उन्होंने ऐसी माया रचाई कि पीपा जी को कोई कुआं ही न मिला| वह भागता फिरता रहा| रानी उसके पीछे-पीछे| धीरे-धीरे वह खड़ा हो गया|

उसको स्वामी रामानंद जी के भेजे हुए शिष्य मिले जो वहां पहुंच गए| उन्होंने जाकर गुरु जी का संदेश पीपा जी को दिया-

'हे राजन! आपको गुरु जी याद कर रहे हैं|'

'गुरु जी बुला रहे हैं! वाह! मेरे धन्य भाग्य! जो मुझे याद किया| मैं पापी पीपा|' कहते हुए, पीपा जी शिष्यों के साथ चल पड़े तथा गुरु रामानंद जी के पास आ पहुंचे| डंडवत होकर चरणों पर माथा टेका| चरण पकड़ कर मिन्नत की, 'महाराज! इस भवसागर से पार होने का साधन बताओ| ईश्वर पूजा की तरफ लगाओ| मैं तो दुर्गा की मूर्ति का पुजारी रहा हूं| लेकिन नारी रूप ने मुझे अज्ञानता के खाते में फैंक छोड़ा|'

'उठो! राम नाम कहो! उठो! स्वामी रामानंद जी ने हुक्म कर दिया तथा बाजू से पकड़ कर पीपा जी को उठाया| पीपा राम नाम का सिमरन करने लग गया| स्वामी रामनंद जी ने उन्हें चरणों में लगा दिया|


पीपा जी भक्त बने

'देखो भक्त! आज से राज अहंकार नहीं होना चाहिए, राज बेशक करते रहना लेकिन हरि भजन का सिमरन मत छोड़ना| साधू-संतों की सेवा भी श्रद्धा से करना, निर्धन नि:सहाय को तंग मत करना| ऐसा ही प्यार जताना जब प्रजा सुखी होगी, हम तुम्हारे पास आएंगे, आपको आने की आवश्यकता नहीं| राम नाम का आंचल मत छोड़ना| 'राम नाम' ही सर्वोपरि है|

पीपा जी उठ गए| उनकी सोई सुई आत्मा जाग पड़ी| रामानंद जी से दीक्षा लेकर उनके शिष्य बन गए| पूर्ण उपदेश लेकर अपने शहर गगनौर की तरफ मुड़ पड़े| तदुपरांत उनकी काय ही पलट गई, स्वभाव बदल गया तथा कर्म बदला| हाथ में माला तथा खड़तालें पकड़ लीं, हरि भगवान का यश करने लगा|

पीपा जी अपने राज्य में आ पहुंचे| उन्होंने भक्ति करने के साथ साथ साधू-संतों की सेवा भी आरम्भ कर दी| गरीबों के लिए लंगर लगवा दिए तथा कीर्तन मण्डलियां कायम कर दीं| राज पाठ का कार्य मंत्रियों पर छोड़ दिया| सीतां जी के अलावा बाकी रानियों को राजमहल में खर्च देकर भक्ति करने के लिए कहा| ऐसे उनके भक्ति करने में कोई फर्क न पड़ा|

पर वह गुरु-दर्शन करने के लिए व्याकुल होने लगे| उनकी व्याकुलता असीम हो गई तो एक दिन रामानंद जी ने काशी में बैठे ही उनके मन की बात जान ली| उन्होंने हुक्म दिया कि वह गगनौर का दौरा करेंगे| उनके हुक्म पर उसी समय अमल हो गया| वह काशी से चल पड़े तथा उनके साथ कई शिष्य चल पड़े| एक मण्डली सहित वे गगनौर पहुंच गए|

सूचना पहुंच गई गुरु रामानंद जी आ रहे हैं| राजा भक्त पीपा तथा उसकी पत्नी को चाव चढ़ गए| वह बहुत ही प्रसन्नचित होकर मंगलाचार तथा स्वागत करने लगे| उनके स्वागत का ढंग भी अनोखा हुआ| कीर्तन मण्डली तैयार की गई, भंडारे देने का प्रबन्ध किया गया| कीर्तन मण्डली तैयार की गई, भंडारे देने का प्रबन्ध किया गया| शहर को सजाया गया तथा लोगों को कहा गया कि वह गुरुदेव का स्वागत करें, दर्शन करें, क्योंकि गुरमुखों, महात्माओं के दर्शन करने से कल्याण होता है - ऐसे महात्मा के दर्शन दुर्लभ हैं| बड़े भाग्य हों तो दर्शन होते हैं| जैसे सतिगुरु जी फरमाते हैं -

वडै भागि भेटे गुरुदेवा|| 
कोटि पराध मिटे हरि सेवा ||१||
चरन कमल जाका मनु रापै|| 
सोग अगनि तिसु जन न बिआपै||२||
सागरु तरिआ साधू संगे|| 
निरभउ नामु जपहु हरि रंगे||३||
पर धन दोख किछु पाप न फेड़े|| 
जम जंदारु न आवै नेड़े ||४||
त्रिसना अगनि प्रभि आपि बुझाई|| 
नानक उधर प्रभ सरनाई||५|



जिसका परमार्थ है - जिन सौभाग्यशाली पुरुषों ने रोशनी करने वाले गुरु की सेवा की है, उनके तमाम पाप कट गए| जिन गुरमुखों का मन प्रभु के चरण कंवलों के प्यार में रमां है, उन को शोक की अग्नि नहीं सताती, अर्थात संसार के भवसागर को साधू-संगत के साथ ही पार किया जा सकता है, इसीलिए कहते हैं कि वह परमात्मा जो निर्भय है, उसके नाम का सिमरन करो| प्रभु नाम सिमरन से जिन्होंने पराया धन चुराने का पाप एवं बुरे कर्म किए हैं, उनके निकट भी यम नहीं आता| क्योंकि प्रभु ने कृपा करके तृष्णा की अग्नि शीतल कर दी है| गुरु की शरण में आने के कारण उनका पार उतारा हो गया है| ऐसे हैं गुरु दर्शन जो बड़े भाग्य से प्राप्त होते हैं|

दो तीन कोस आगे से राजा अपने गुरुदेव को आ मिला| उसने प्रार्थना करके अपने गुरुदेव को पालकी में बिठाया तथा आदर सहित राज भवन में लेकर गया| चरणामृत पीया, सेवा करके पीपा आनंदित हुआ| कीर्तन होता रहा| कई दिन हरि यश हुआ तो स्वामी रामानंद जी ने विदा होने की इच्छा व्यक्त की तथा पीपा ने बड़ी नम्रता के साथ इस तरह प्रार्थना की -

हे प्रभु! निवेदन है कि इस राज शासन में से मन उचाट हो गया है| यह राज पाठ अहंकार तथा भय का कारण है| इसको त्याग कर आपके साथ जाना चाहता हूं| आत्मा-परमात्मा के साथ कभी जुड़े| हुक्म करो|

'हे राजन! यह देख लो, संन्यास लेना कष्टों में पड़ना है| बड़े भयानक कष्ट उठाने पड़ते हैं| भुखमरी से मुकाबला करना पड़ता है| जंगलों में नंगे पांव चलना पड़ता है| सुबह उठ कर शीतल जल से स्नान करना होता है| ऐसा ही कर्म है, अहंकार का त्याग करना पड़ता है| प्रभु कई बार परीक्षा लेता है| परीक्षा भी अनोखे ढंग से होती है| यदि ऐसा मन करता है तो चल पड़ो साथ में|

पीपा गुरुदेव के चरणों पर माथा टेक कर राजभवन में गया, शाही वस्त्र उतार दिए तथा फकनी तैयार करवा कर गले में डाल ली, वैरागी साधू बन गया| उसने रानियों तथा उनकी संतान को राज भाग सौंप दिया| छोटी रानी सीता के हठ करने पर उसको वैरागन बना कर साथ ले चला| वैष्णव संन्यासियों में नारी से दूर रहने की आज्ञा होती है, पर स्वामी रामानंद जी सीता जी की पतिव्रता और प्रभु-प्यार देख कर उसको रोक न सके| सीता साथ ही चल पड़ी तथा वे अपने राज से बाहर हो गए| वे साधू-मण्डली के साथ घूमने लगे|


भगवान श्री कृष्ण जी के दर्शन 

साधू मण्डली के साथ विचरण करते हुए भक्त जी ने द्वारिका नगरी में प्रवेश किया| वहां पहुंच कर स्वामी रामानंद जी तो अपने आश्रम कांशी की तरफ लौट आए, पर पीपा जी अपनी सहचरनी सीता के साथ वहीं रहे| भगवान श्री कृष्ण जी के दर्शन करने के लिए व्याकुल होकर इधर-उधर फिर कर कठिन तपस्या करने लगे| वह ध्यान धारण करके बैठ जाते| उनको जो कोई बात कहता, वह उसी को सत्य मां जाते | पर उनके साथ जब बेईमानी या धोखा होने लगता तो परमात्मा स्वयं ही उनकी रक्षा करता| भक्त जी तो दुनिया की बातों से दूर चले गए थे|
कथा करने वाले एक पंडित ने कहा, 'भगवान श्री कृष्ण जी द्वारिका नगरी में रहते हैं, वहां कोई महान भक्ति वाला ही पहुंच सकता है| उन्होंने दूसरी द्वारिका नगरी बसाई है| वह नगरी जल के नीचे है|

यह कथा श्रवण करने के बाद भक्त के मन पर प्रभाव पड़ गया| वह तो भगवान के दर्शनों के लिए और ज्यादा व्याकुल हो गए| एक दिन यमुना किनारे बैठे थे| सीता जी उनके पास थी| उनके पास एक तिलकधारी पंडित बैठा था| उसको पूछा -

'हे प्रभु सेवक पंडित जी! भला यह तो बताओ कि भगवान श्री कृष्ण जी जिस द्वारिका नगरी में रहते हैं, वह कहां है?'

उस पंडित ने भक्त जी की तरफ देखा और समझा कि कोई बहुत ही अज्ञानी पुरुष है, जो ऐसी बातें करता है| उसने क्रोध से कह दिया - 'पानी में|'

'पानी में' कहने की देर थी, बिना किसी सोच-विचार तथा डर के भक्त जी ने पानी में छलांग लगा दी| उनके पीछे ही उनकी पतिव्रता स्त्री ने छलांग लगा दी तथा दोनों पानी में लुप्त हो गए|

देखने वालों ने उस ब्राह्मण को बहुत बुरा-भला कहा तथा वह स्वयं भी पछताने लगा कि उससे घोर पाप हुआ है, पर वह क्या कर सकता है? वह डर के कारण वहां से उठ कर चला गया|

उधर अपने भक्तों के स्वयं रक्षक! भगवान विष्णु ने उसी समय कृष्ण रूप धारण करके अपने सेवकों को बचा लिया| जल में ही माया के बल से द्वारिका नगरी बसा ली तथा अपने भक्तों को दर्शन दिए| साक्षात् दर्शन करके पीपा जी तथा उनकी पत्नी आनंदित हो गए| जन्म मरण
के बंधनों से मुक्त हुए| ऐसा आनंद द्वारिका नगर से प्राप्त हुआ कि वहां से लौटना कठिन हो गया| प्रार्थना की 'हे प्रभु! कृपा करो अपने चरण कंवलों में निवास प्रदान करें|'

यह खेल समय के साथ होगा| अभी भक्तों को पृथ्वी लोक पर रहना होगा| भगवान कृष्ण जी ने वचन कर दिया|

प्रभु जी ने निशानी के तौर पर अपनी अंगूठी उनको दी| रुकमणी जी ने सीता को साड़ी देकर कृतार्थ किया| दोनों पति-पत्नी निशानियां लेने के बाद प्रभु के दरबार से विदा हो गए| देवता उनको जल से बाहर तक छोड़ गए| पर प्रभु से विलग कर भक्त जी उसी तरह तड़पे जिस तरह जल के बिना मछली तड़पती है| उनको कपड़ों सहित पानी में से निकलते देख कर लोग बड़े स्तब्ध हुए|

कई लोगों ने पूछा - 'भक्त जी आप तो डूब गए थे|'

भक्त जी ने कहा - 'नहीं भाई हम डूबे नहीं थे, हम तो प्रभु के दर्शनों को गए थे, दर्शन कर आए हैं|'

जब लोगों को पूरी वार्ता का पता लगा तो पीपा जी की महिमा सारी द्वारिका नगरी में सुगन्धि की तरह फैल गई|


सीता सहचरी की रक्षा 

लोग दूसरों की बातों में आने वाले तथा अन्धविश्वासी होते हैं| जब एक व्यक्ति ने बताया कि पीपा और उनकी पत्नी सीता प्रभु के दर्शन करके वापिस लौट आए हैं और प्रभु की निशानियां भी साथ लाए हैं तो शहर के सारे लोग पीपा जी के दर्शनों को आने लग गए| कुछेक तो प्रभु रूप समझ कर उनकी पूजा करने लग गए| पीपा जी को यह बात अच्छी न लगी| वह अपनी पत्नी सीता के साथ वन में चले गए ताकि एकांत में प्रभु भक्ति कर सकें| लोग तो हरि नाम सिमरन का भी समय नहीं देते थे| वह घने जंगल की तरफ जा रहे थे कि मार्ग में एक पठान मिला| वह बड़ा कपटी और बेईमान था और स्त्री के रूप का शिकारी था| वह दोनों भक्तों के पीछे लग गया| थोड़ी दूर जाने पश्चात सीता को प्यास लगी| वह एक कुदरती बहते जल के नाले से पानी पीने लग गई| भक्त जी प्रभु के नाम सिमरन में मग्न आगे निकल गए| उनकी और सीता की काफी दूरी हो गई| पठान ने पानी पी रही सीता को आ दबोचा| वह उसे उठा कर जंगल में एक तरफ ले गया| जो प्रभु के प्रेमी होते हैं, प्रभु भी उनका ही होता है| पठान के काबू में आई सीता ने परमात्मा का सिमरन शुरू कर दिया| प्रभु सीता की रक्षा के लिए शेर के रूप में शीघ्र ही वहां आ गए और सती सीता की इज्जत बचा ली| पठान को कोई पाप कर्म न करने दिया और अपने पंजों से पठान का पेट चीर कर उसे नरक में भेज दिया| जब पठान मर गया तो शेर जिधर से आया था उधर को चला गया| सीता अभी वहां ही खड़ी थी कि प्रभु फिर एक वृद्ध संन्यासी के रूप में उसके पास आ गए| उन्होंने आते ही कहा - "बेटी सीता! तुम्हारा पति पीपा भक्त खड़ा तेरा इंतजार कर रहा है| चलो, मैं तुम्हें उसके पास छोड़ आऊं|"

सीता उस संन्यासी के साथ चल पड़ी| वह भक्त पीपा जी के पास सीता को छोड़ कर आप अदृश्य हो गए| जिस समय संन्यासी आंखों से ओझल हो गया तो सीता को पता चल, 'ओहो! यह तो प्रभु जी थे, दर्शन दे गए| मैं चरणों पर न गिरी|' वह उसी समय 'राम! राम! का सिमरन करने लग गई|


ठग साधू तथा सीता जी 

सीता सहचरी एक तो प्राकृतिक तौर पर सुन्दर एवं नवयौवना थी, दूसरा, प्रभु भक्ति और पतिव्रता होने के कारण उसके रूप को और भी चार चांद लग गए थे| भक्तिहीन पुरुष जब उसको देख लेता था तो उसकी सुन्दरता पर मोहित हो जाता था| वह दिल हाथ से गंवा कर अपनी बुरी नीयत से उसके पीछे लग जाता था|

एक दिन चार दुष्ट पुरुषों ने सीता जी का सत भंग करने का इरादा किया| उन्होंने साधुओं जैसे वस्त्र खरीद लिए तथा नकली साधू बन गए| कई दिन भक्त पीपा जी के साथ घूमते रहे| एक दिन ऐसा सबब बना कि एक मंदिर में रात्रि रहने का समय मिल गया| उस मंदिर में दो कमरे थे|मंदिर बिल्कुल खाली था| आसपास आबादी की जगह घना जंगल था| जबसे भक्त पीपा जी और सती सीता ने संन्यास लिया था, वह एक बिस्तर पर नहीं सोते थे| उस दिन भक्त पीपा ने सती सीता को अकेली कमरे में सोने के लिए कहा तथा आप साधुओं के साथ दूसरे कमरे में सो गए| शायद ईश्वर ने ठगों का नकाब उठाना था, इसीलिए सीता सहचरी को अलग कमरे में विश्राम करने लिए कहा| चारों ठग साधुओं ने योजना बनाई कि अकेले-अकेले साथ के कमरे में आकर सती सीता जी का सत भंग करें| जब काफी रात हो गई तो जहां सति सीता जी सोई हुई थी, एक दुष्ट दबे पांव आगे गया| वह यही समझता रहा कि न तो पीपा जी को पता चला है, न सीता जी को| उनकी कामना पूरी होने में अब कोई कसर नहीं रहेगी| आखिर सीता है तो एक स्त्री थी, पुरुष के बल के आगे उसका क्या ज़ोर चलता है? उस कमरे में अन्दर एक दुष्ट-साधू घुस कर ढूंढने लगा कि सीता कहां है, क्योंकि काफी अंधेरा था| दबे पांव हाथों से तलाश करते हुए जब वह आसन पर पहुंचा, उसने शीघ्र ही सीता सहचरी को दबोचने का प्रयास किया| बाजू फैला कर वहीं गिर गया| जब हाथ इधर-उधर मारे तो उसकी चीखें निकल गईं| डर कर वह शीघ्र ही उछल कर पिछले पांव गिर गया| तलाशने पर पता चला कि कोमल तन वाली सुन्दर नारी बिस्तर पर नहीं है बल्कि तीक्ष्ण बालों वाली रोशनी है, उसके कान हैं, दांत हैं और वह झपटा मार कर पड़ी| गिरता-गिरता वह दुष्ट बाहर निकल आया| डर के कारण उसका दिल वश में न रहा| उसको हांफता हुआ देखकर दूसरे बाहर चले आए और उसे दूर ले जाकर पूछने लगे-मामला क्या है? उसने कहा - 'सीता का तो पता नहीं कहां है परन्तु उसकी जगह एक शेरनी लेटी हुई है| वह मुझे चीरने ही लगी थी, मालूम नहीं किस समय की अच्छाई की हुई मेरे आगे आई है, जो प्राण बच गए|

अरे पागल! सीता ही होगी, यूं ही डर गए| डर ने तुम्हें यह महसूस करवाया है कि वह शेरनी है| चलो ज़रा चल कर देखें, मैं त्रिण जलाता हूं| धूनी से अग्नि लेकर उन्होंने कुछ त्रिण जलाई| उन्होंने जलती हुई त्रिण के साथ कमरे में उजाला करके देखा तो सचमुच शेरनी सोई हुई है| उसकी सूरत भी डरावनी थी| डर कर चारों पीछे हट गए| अग्नि वाली त्रिण हाथ से गिर गई| उनमें से एक ने जाकर भक्त पीपा जी को जगा दिया| उसकी समाधि खुलने पर उसको बताया, 'भक्त जी अनर्थ हो गया| सीता तो पास वाले कमरे में नहीं है, उसके आसन पर शेरनी है| या तो आपकी पत्नी सीता कहीं चली गई है या शेरनी ने उसे खा लिया है| कोई पता नहीं चलता कि ईश्वर ने क्या माया रची है?

पापी पुरुषों से यह वार्ता सुन कर पीपा जी हंस पड़े| वह मुस्कराते हुए बोले, 'सीता तो संभवत: कमरे में ही होगी लेकिन आपका मन और आंखें अन्धी हो चुकी हैं| इसलिए आपके दिलों पर पापों का प्रभाव है| आपको कुछ और ही दिखाई दे रहा है| चलो, मैं आपके साथ चलकर देखता हूं|

भक्त पीपा जी अपने आसन से उठ गए तथा उठकर उन्होंने साथ वाले कमरे में सीता जी को आवाज़ दी, 'सहचरी जी!'

'जी भक्त जी!' आगे से उत्तर आया|

'बाहर आओ! साधू जन आपके दर्शन करना चाहते हैं|'

सीता सहचरी अपने बिस्तर से उठकर बाहर आ गई| चारों ठग साधू बड़े शर्मिन्दा हुए| उनको कोई बात न सूझी| वह चुप ही रहे| सूर्य निकलने से पूर्व ही वे सारे दुष्ट (ठग साधू) पीपा जी का साथ छोड़ कर कहीं चले गए| प्रभु ने सीता की रक्षा की| सबका रक्षक आप सृजनहार है|
जब सुबह हुई तो वे दुष्ट नज़र न आए| भक्त जी ने सीता को कहा - 'मैं विनती करता हूं कि अब भी आप राजमहल में लौट जाओ| देखो कितने खतरों का सामना करना पड़ता है| कई पापी मन आपके यौवन पर गिर पड़ते हैं| कलयुग का समय ही ऐसा है| आपके रूप पर मस्त होते हैं, यह लोग पाखण्डी हैं और मन पर काबू नहीं| आप अपने राजमहल में चले जाओ और सुख शांति से रहो|'

ऐसे वचन सुनकर पतिव्रता सीता जी ने हाथ जोड़ कर कहा - हे प्रभु! ज़रा यह ख्याल कीजिए कि यदि आपके होते हुए आपके चरणों में मेरी रक्षा नहीं हो सकती तो राजभवन में रानियों को सदा खतरा ही रहता है| नारी को पति परमेश्वर के चरणों में सदैव सुख है, चाहे कोई दु:खी हो या सुखी, मैं कहीं नहीं जाऊंगी| जो बुरी नीयत से देखते हैं, वे पापों के भागी बनते हैं| मेरा रक्षक परमात्मा है|'

'अच्छा! जैसी आपकी इच्छा|' यह कह कर पीपा जी प्रभु के साथ मन लगा कर बैठ गए|

वे दुष्ट चुपचाप ही भाग गए थे| उनको पता चल गया था कि सीता सहचरी का रक्षक ईश्वर आप ही है|

सूरज मल सैन को उपदेश 

कायउ देवा काइअउ देवल काइअउ जंग़म जाती||
काइअउ धूप दीप नई बेदा काइअउ पूजऊ पाती||१||
काइआ बहु खंड खोजते नव निधि पाई||
ना कछु आइबो ना कछु जाइबो राम की दुहाई ||१|| रहाउ||
जो ब्रहमंडे सोई पिंडे जो खोजै सो पावै||
पीपा प्रणवै परम ततु है सतिगुरु होई लखावै||२|| 



भक्त पीपा जी जब उपदेश किया करते थे तो वह बाणी भी उच्चारण करते थे| आप जी की बाणी राजस्थान के लोक-साहित्य में मिलती है|मगर श्री गुरु ग्रंथ साहिब जी में एक शब्द है| इसका भावार्थ यह है:

हे भक्त जनो! यह जो पंचतत्व शरीर है, यही प्रभु है, भाव शरीर में जो आत्मा है वही परमात्मा है| साधू-सन्तों का घर भी शरीर है| पंडित देवतों की पूजा करते हैं, पूजा की सामग्री सब शरीर में है| सब कुछ तन में है| इसमें से ढूंढो| सतिगुरु की कृपा हो| इस तन से सब कुछ प्राप्त होता है|

ऐसे उपदेश करते हुए भक्त पीपा जी देश में भ्रमण करते रहे| जहां भी किसी को पता लगता कि पीपा राज छोड़कर भक्त बन गया है तो बहुत सारे लोग दर्शन करने के लिए आते| बड़े-बड़े राजा तथा सरदार अमीर लोग उपदेश सुनते| आप एक निरंकार का उपदेश देते तथा मूर्ति पूजा का खंडन करते|

आप महा त्यागी थे| एक बार आप एक रियासत की राजधानी में पहुंचे| ठाकुर द्वार पर निवास था| आप स्नान करने के लिए सरोवर के पास पहुंचे तो एक बेरी के नीचे गागर पड़ी हुई थी| उसमें से आवाज़ आई, 'मेरे कोई बंधन काटे, गागर में से आज़ाद करे|'

'उफ! माया!' भक्त जी ने देख कर कहा - 'भक्तों की शत्रु|' कह कर चले आए तथा सारी वार्ता सीता जी को सुनाई, 'स्वर्ण मुद्राएं पड़ी हैं|' हे स्वामी जी! अच्छा किया आपने| उधर मत जाना, स्वर्ण मुद्राएं हमारे किस काम की!'

उनकी बातचीत पास बैठे चोरों ने सुन लीं| उन्होंने योजना बनाई कि चलो, हम गागर उठा लाते हैं| वह चले गए, पर जब गागर को हाथ डाला तो वहां सांप फुंकारे मारता हुआ दिखाई दिया| वे डर कर एक तरफ हो गए|

यह देख कर उनको काफी गुस्सा आया| एक ने कहा - ' साधू को अवश्य ही हमारा पता लग गया होगा कि हम चोर हैं| उसके साथ एक सुन्दर नारी भी है| वह हमें धोखे से मरवाना चाहता है| चलो, यह गागर उठाकर ले चलें तथा उसके पास रख दें| सांप निकलेगा तथा डंक मार कर इहलीला समाप्त कर देगा| नारी हम उठा कर ले जाएंगे| एक चोर की इस बात पर सभी ने हामी भरी|

चोरों ने गागर का मुंह बांध कर उसे उठा कर ठाकुर द्वार में आहिस्ता से भक्त पीपा जी के पास रख दिया और वहां से चले गए| भक्त उठा तो गागर को देखकर बड़ा आश्चर्यचकित हुआ लेकिन उसमें से उसी तरह आवाज़ आई, 'क्या कोई मेरे बंधन काटेगा? मैं संतों की शत्रु नहीं, दासी हूं|'

भक्त जी ने गागर में से माया निकाल कर साधुओं को दो भंडारे कर दिए| खाली गागर ठाकुर द्वार में रख दी| उन भंडारों से जय-जयकार होने लग गई, लोग भक्त पीपा जी का यश करने लगे|

उस नगरी के राजा सूरज मल सैन का उपदेश देकर भक्ति मार्ग की ओर लगाया| आप १३६ वर्ष की आयु भोग कर इस संसार से कूच कर गए| पिछली आयु में आप पूर्ण ब्रह्म ज्ञानी हो गए थे| संसार में आपका नाम भक्ति के कारण अमर है|

बोलो! भक्तों की जय, सतिनाम श्री वाहिगुरु तथा राम नाम का महान प्रताप|

Thursday 28 November 2013

श्री साई सच्चरित्र – अध्याय-1


 सांई राम
आप सभी को साईंवार की हार्दिक शुभ कामनाएं , हम प्रत्येक साईंवार के दिन आप के समक्ष बाबा जी की जीवनी पर आधारित श्री साईं सच्चित्र का एक अध्याय प्रस्तुत करने के लिए श्री साईं जी से अनुमति चाहते है , हमें आशा है की हमारा यह कदम घर घर तक श्री साईं सच्चित्र का सन्देश पंहुचा कर हमें सुख और शान्ति का अनुभव करवाएगाकिसी भी प्रकार की त्रुटी के लिए हम सर्वप्रथम श्री साईं चरणों में क्षमा याचना करते है... 

श्री साई सच्चरित्र – अध्याय-1

गेहूँ पीसने वाला एक अद्भभुत सन्त वन्दना - गेहूँ पीसने की कथा तथा उसका तात्पर्य
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पुरातन पद्घति के अनुसार श्री हेमाडपंत श्री साई सच्चरित्र का आरम्भ वन्दना करते हैं 

1.
प्रथम श्री गणेश को साष्टांग नमन करते हैंजो कार्य को निर्विध समाप्त कर उस को यशस्वी बनाते हैं कि साई ही गणपति हैं 

2.
फिर भगवती सरस्वती कोजिन्होंने काव्य रचने की प्रेरणा दी और कहते हैं कि साई भगवती से भिन्न नहीं हैंजो कि स्वयं ही अपना जीवन संगीत बयान कर रहे हैं 

3.
फिर ब्रहाविष्णुऔर महेश कोजो क्रमशः उत्पत्तिसि्थति और संहारकर्ता हैं और कहते हैं कि श्री साई और वे अभिन्न हैं  वे स्वयं ही गुरू बनकर भवसहगर से पार उतार देंगें 

4.
फिर अपने कुलदेवता श्री नारायण आदिनाथ की वन्दना करते हैं  जो कि कोकण में प्रगट हुए  कोकण वह भूमि हैजिसे श्री परशुरामजी ने समुद् से निकालकर स्थापित किया था  तत्पश्चात् वे अपने कुल के आदिपुरूषों को नमन करते हैं 

5.
फिर श्री भारदृाज मुनि कोजिनके गोत्र में उनका जन्म हुआ  पश्चात् उन ऋषियों को जैसे-याज्ञवल्क्यभृगुपाराशरनारदवेदव्याससनक-सनंदनसनत्कुमारशुकशौनकविश्वामित्रवसिष्ठवाल्मीकिवामदेवजैमिनीवैशंपायननव योगींद्इत्यादि तथा आधुनिक सन्त जैसे-निवृतिज्ञानदेवसोपानमुक्ताबाईजनार्दनएकनाथनामदेवतुकारामकान्हानरहरि आदि को नमन करते हैं 

6.
फिर अपने पितामह सदाशिवपिता रघुनाथ और माता कोजो उनके बचपन में ही गत हो गई थीं  फिर अपनी चाची कोजिन्होंने उनका भरण-पोषण किया और अपने प्रिय ज्येष्ठ भ्राता को नमन करते हैं 

7.
फिर पाठकों को नमन करते हैंजिनसे उनकी प्रार्थना हैं कि वे एकाग्रचित होकर कथामृत का पान करें 

8.
अन्त में श्री सच्चिददानंद सद्रगुरू श्री साईनाथ महाराज कोजो कि श्री दत्तात्रेय के अवतार और उनके आश्रयदाता हैं और जो ब्रहा सत्यं जगनि्मथ्या का बोध कराकर समस्त प्राणियों में एक ही ब्रहा की व्यापि्त की अनुभूति कराते हैं 
श्री पाराशरव्यासऔर शांडिल्य आदि के समान भक्ति के प्रकारों का संक्षेप में वर्णन कर अब ग्रंथकार महोदय निम्नलिखित कथा प्रारम्भ करते हैं 


गेहूँ पीसने की कथा
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सन् 1910 में मैं एक दिन प्रातःकाल श्री साई बाबा के दर्शनार्थ मसजिद में गया  वहाँ का विचित्र दृश्य देख मेरे आश्चर्य का ठिकाना  रहा कि साई बाबा मुँह हाथ धोने के पश्चात चक्की पीसने की तैयारी करने लगे  उन्होंने फर्श पर एक टाट का टुकड़ा बिछाउस पर हाथ से पीसने वाली चक्की में गेहूँ डालकर उन्हें पीसना आरम्भ कर दिया 
मैं सोचने लगा कि बाबा को चक्की पीसने से क्या लाभ है  उनके पास तो कोई है भी नही और अपना निर्वाह भी भिक्षावृत्ति दृारा ही करते है  इस घटना के समय वहाँ उपसि्थत अन्य व्यक्तियों की भी ऐसी ही धोरणा थी  परंतु उनसे पूछने का साहस किसे था  बाबा के चक्की पीसने का समाचार शीघ्र ही सारे गाँव में फैल गया और उनकी यह विचित्र लीला देखने के हेतु तत्काल ही नर-नारियों की भीड़ मसजिद की ओर दौड़ पडी़ 
उनमें से चार निडर सि्त्रयां भीड़ को चीरता हुई ऊपर आई और बाबा को बलपूर्वक वहाँ से हटाकर हाथ से चक्की का खूँटा छीनकर तथा उनकी लीलाओं का गायन करते हुये उन्होंने गेहूँ पीसना प्रारम्भ कर दिया 
पहिले तो बाबा क्रोधित हुएपरन्तु फिर उनका भक्ति भाल देखकर वे षान्त होकर मुस्कराने लगे  पीसते-पीसते उन सि्त्रयों के मन में ऐसा विचार आया कि बाबा के  तो घरदृार है और  इनके कोई बाल-बच्चे है तथा  कोई देखरेख करने वाला ही है  वे स्वयं भिक्षावृत्ति दृारा ही निर्वाह करते हैंअतः उन्हें भोजनाआदि के लिये आटे की आवश्यकता ही क्या हैं  बाबा तो परम दयालु है  हो सकता है कि यह आटा वे हम सब लोगों में ही वितरण कर दें  इन्हीं विचारों में मगन रहकर गीत गाते-गाते ही उन्होंने सारा आटा पीस डाला  तब उन्होंने चक्की को हटाकर आटे को चार समान भागों में विभक्त कर लिया और अपना-अपना भाग लेकर वहाँ से जाने को उघत हुई  अभी तक शान्त मुद्रा में निमग्न बाब तत्क्षण ही क्रोधित हो उठे और उन्हें अपशब्द कहने लगेसि्त्रयों क्या तुम पागल हो गई हो  तुम किसके बाप का माल हडपकर ले जा रही हो  क्या कोई कर्जदार का माल हैजो इतनी आसानी से उठाकर लिये जा रही हो  अच्छाअब एक कार्य करो कि इस अटे को ले जाकर गाँव की मेंड़ (सीमापर बिखेर आओ 
मैंने शिरडीवासियों से प्रश्न किया कि जो कुछ बाबा ने अभी किया हैउसका यथार्थ में क्या तात्पर्य है  उन्होने मुझे बतलाया कि गाँव में विषूचिका (हैजाका जोरो से प्रकोप है और उसके निवारणार्थ ही बाबा का यह उपचार है  अभी जो कुछ आपने पीसते देखा थावह गेहूँ नहींवरन विषूचिका (हैजाथीजो पीसकर नष्ट-भ्रष्ट कर दी गई है  इस घटना के पश्चात सचमुच विषूचिका की संक्रामतकता शांत हो गई और ग्रामवासी सुखी हो गये 


यह जानकर मेरी प्रसन्नता का पारावार  रहा  मेरा कौतूहल जागृत हो गया  मै स्वयं से प्रश्न करने लगा कि आटे और विषूचिका (हैजारोग का भौतिक तथा पारस्परिक क्या सम्बंध है  इसका सूत्र कैसे ज्ञात हो  घटना बुदिगम्य सी प्रतीत नहीं होती  अपने हृतय की सन्तुष्टि के हेतु इस मधुर लीला का मुझे चार शब्दों में महत्व अवश्य प्रकट करना चाहिये  लीला पर चिन्तन करते हुये मेरा हृदय प्रफुलित हो उठा और इस प्रकार बाब का जीवन-चरित्र लिखने के लिये मुझे प्रेरणा मिली  यह तो सब लोगों को विदित ही है कि यह कार्य बाबा की कृपा और शुभ आशीर्वाद से सफलतापूर्वक सम्पन्न हो गया 
आटा पीसने का तात्पर्य
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शिरडीवासियों ने इस आटा पीसने की घटना का जो अर्थ लगायावह तो प्रायः ठीक ही हैपरन्तु उसके अतिरिक्त मेरे विचार से कोई अन्य भी अर्थ है  बाब शिरड़ी में 60 वर्षों तक रहे और इस दीर्घ काल में उन्होंने आटा पीसने का कार्य प्रायः प्रतिदिन ही किया  पीसने का अभिप्राय गेहूँ से नहींवरन् अपने भक्तों के पापोदुर्भागयोंमानसिक तथा शाशीरिक तापों से था  उनकी चक्की के दो पाटों में ऊपर का पाट भक्ति तथा नीचे का कर्म था  चक्की का मुठिया जिससे कि वे पीसते थेवह था ज्ञान  बाबा का दृढ़ विश्वास था कि जब तक मनुष्य के हृदय से प्रवृत्तियाँआसक्तिघृणा तथा अहंकार नष्ट नहीं हो जातेजिनका नष्ट होना अत्यन्त दुष्कर हैतब तक ज्ञान तथा आत्मानुभूति संभव नहीं हैं 
यह घटना कबीरदास जी की उसके तदनरुप घटना की स्मृति दिलाती है  कबीरदास जी एक स्त्री को अनाज पीसते देखकर अपने गुरू निपतिनिरंजन से कहने लगे कि मैं इसलिये रुदन कर रहा हूँ कि जिस प्रकार अनाज चक्की में पीसा जाता हैउसी प्रकार मैं भी भवसागर रुपी चक्की में पीसे जाने की यातना का अनुभव कर रहा हूँ  उनके गुरु ने उत्तर दिया कि घबड़ाओ नहीचक्की के केन्द्र में जो ज्ञान रुपी दंड हैउसी को दृढ़ता से पकड़ लोजिस प्रकार तुम मुझे करते देख रहे हो  उससे दूर मत जाओबसकेन्द्र की ओप ही अग्रसर होते जाओ और तब यह निशि्चत है कि तुम इस भवसागर रुपी चक्की से अवश्य ही बच जाओगे 


।। श्री सद्रगुरु साईनाथार्पणमस्तु  शुभं भवतु ।।

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एक 18 साल का लड़का ट्रेन में खिड़की के पास वाली सीट पर बैठा था. अचानक वो ख़ुशी में जोर से चिल्लाया "पिताजी, वो देखो, पेड़ पीछे जा रहा हैं". उसके पिता ने स्नेह से उसके सर पर हाँथ फिराया. वो लड़का फिर चिल्लाया "पिताजी वो देखो, आसमान में बादल भी ट्रेन के साथ साथ चल रहे हैं". पिता की आँखों से आंसू निकल गए. पास बैठा आदमी ये सब देख रहा था. उसने कहा इतना बड़ा होने के बाद भी आपका लड़का बच्चो जैसी हरकते कर रहा हैं. आप इसको किसी अच्छे डॉक्टर से क्यों नहीं दिखाते?? पिता ने कहा की वो लोग डॉक्टर के पास से ही आ रहे हैं. मेरा बेटा जनम से अँधा था, आज ही उसको नयी आँखे मिली हैं. #नेत्रदान करे. किसी की जिंदगी में रौशनी भरे.